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सुरमई शाम



वो चले ही थे

अस्ताचल को
उत्तरायण का इशारा देते
गोल-मटोल सूरज दादा,,,
कि तभी ,
आसमानी परदे-पीछे छिपी
संध्या रानी
तपाक से आ धमकी
ज़र्रा-ज़र्रा कंपाती,
हाड-मांस थरथराती,,,

अभी तक तो था सहारा
सूरज की गरम रजाई का,
जैसे-जैसे नीचे जाता,
बचपन याद आने लगता
कैसे सब ढूंढने लगते थे
अपने घर में वो कोना
जहाँ बचा है कोई
धूप का टुकड़ा,,,

कोई बरामदे में,
तो कोई
बाथरूम के कोने में
तो कोई मुंडेर के नीचे,,,

दीवार पे टंगे
धूप के टुकड़े को देख
स्पाइडरमैन बनने का
मन किया करता था,,,

ओह ! ये बचपन भी ना
बात-बात पे अक्सर
बेहद याद आता है |

हाँ, तो शाम की सिहरन
जवाँ हुआ ही चाहती थी
कि अचानक
न जाने क्या सूझी
आवारा बादलों को !
कल से तो
हवा औ' सूरज संग
आँख-मिचौली खेल रहे थे,,,
सहसा
अपनी पोटली खोल
झिरमिर बौछारें लुटाने लगे,,,


दाँत किटकिटाते हुए
मैंने पूछा खिड़की से ही--
"ये आँख-मिचोली छोड़
होली क्यों खेलने लगे तुम सब?
यूँ ही हाल था हमारा बेहाल
और क्यूँ सताने लगे तुम?"

बादल बोले-
"तुम्हारी बड़ी याद आ रही थी,
सो मिलने चले आये |
अब तुम्हारे हाथ के बने
बड़े-पकौड़े खा कर ही जाएँगे,
और हाँ,
तिल के लड्डू भी लाना
मत भूलना |"
(कितना अपनापन था
उनके अंदाज़ में ! )

और मैं
अपने बचपन के
सखाओं की फ़रमाइश
पूरी करने,
भूल सर्द मौसम को
दौड़ पड़ी किचन में|

____हिमांशु






 

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