कभी-कभी किरचों-सी
दरकती थी ज़िंदगी,,,
टूटते हुए सपनों से
चटकती थी ज़िंदगी,,
घनी धुंध के सायों में
भटकती थी ज़िंदगी,,
कंटीली बेल-सी
कसकती थी ज़िंदगी,,
खामोश अंधेरों में
बिलखती थी ज़िंदगी,,
तन्हाइयों में लिपटी
शून्य तकती थी ज़िंदगी,,,
लेकिन फिर,
समय-रथ आगे बढ़ा,
औ'
कुहासों के घेरे कुछ यूँ
सिमटने लगे,
और लगा कि
सर्द-भावों के पिघलने से
बहने लगी है ज़िंदगी,,
दर्द घावों के रिस जाने से
संवरने लगी है ज़िंदगी,,,
सूरज के साथ फिर से
चमकने लगी है ज़िंदगी,,
चंदा के संग फिर से
गमकने लगी है ज़िंदगी,,,
फूलों के संग फिर से
महकने लगी है ज़िंदगी,,,
हवाओं की सरगोशियों में
थिरकने लगी है ज़िंदगी,,,
अब
क्या गिला क्या शिकवा
यही तो है ज़िंदगी |
कभी धूप तो कभी छाँव
कभी सुर्ख तो कभी श्याम
यही तो है ज़िंदगी |||
____हिमांशु