खिड़की से फिर शाम
चुपके से उतर आई है |
बतियाने,
तनहाइयों को बाँटने
सखी बन कर आई है |
दूर गगन से,
जब पुकारेगा सांध्य-तारा
आवाज़ देगा चन्दा
तो रात की बग्घी में बैठ
गले मिल, रुख़सत ले
विदा भी हो जाएगी |
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यूँ ही पढ़ते-पढ़ते
कमरे की दीवारों की
गर्माहट के बीच से,
उचटती-सी नज़र जो डाली
खिड़की के बाहर,
तो
हर सू फ़ैली डरावनी चुप्पी
चारों ओर अँधेरे की चादर |
तनहाई बटोरती
दूर किसी मकान के कमरे में
जलती बत्ती,
शायद
फुटपाथ पर सिकुड़े-सिमटे
सर्दी में ठिठुरते हुओं को भी
गर्माहट देती
बड़ी भली लग रही है |
मन के किसी कोने से
एक आह निकली
और सवाल उठा
क्यूँ सिर्फ सियाही-सी
तारी है हर सू !!!!
रात-सी वीरान ये ज़िंदगियाँ
क्यूँ नहीं जगमगाती हैं
सितारों से, चंदा से !!!
वो गणतंत्र
कब नसीब होगा इन्हें
जब रात का अँधेरा
डराएगा नहीं इन्हें,
और सुबहा का सूरज
हर रोज़ नयी रौशनी में
नहलाएगा इन्हें |
इन्हीं विचारों में
डूबते-उतरते
कब पौ फटी
सुबह ने कब दस्तक दी
उसे अहसास ही नहीं हुआ|