वो सांझ की पलकें झुकने लगीं
कुछ भूले हुए तराने
फिर याद आने लगे |
कुछ यूँ नयन में आंसू छाये
घनी-बोझिल पलकें ज्यूँ
झील के नरम-नाज़ुक साये |
नीर भरी दो बदलियाँ
बेकल-बेचैन हों ज्यूँ
बरस-बरस जाने को |
ये सांझ रोज़ आती है
मन के अंधियारे को
और सघन करने को |
पर ये जिजीविषा
उजास का दामन
थामे रखती है |
ज्यूँ उजली परियाँ
मनस-सरोवर में
फैलाती हों उजास अपना |
वो चाँद भी झुकने लगता है
शाख़-ए-मन पे
ये शाम रोशन करने को |
और फिर,
हर लश्कर-ए-शाम
एक सवेरे में ग़ुम हो जाती है |
_____हिमांशु
घनी-बोझिल पलकें ज्यूँ
झील के नरम-नाज़ुक साये |
नीर भरी दो बदलियाँ
बेकल-बेचैन हों ज्यूँ
बरस-बरस जाने को |
ये सांझ रोज़ आती है
मन के अंधियारे को
और सघन करने को |
पर ये जिजीविषा
उजास का दामन
थामे रखती है |
ज्यूँ उजली परियाँ
मनस-सरोवर में
फैलाती हों उजास अपना |
वो चाँद भी झुकने लगता है
शाख़-ए-मन पे
ये शाम रोशन करने को |
और फिर,
हर लश्कर-ए-शाम
एक सवेरे में ग़ुम हो जाती है |
_____हिमांशु