स्मृतियों के बिखरने-सा
चम्पई पुष्पों का सौरभ
पर्वत से उतरते झरने के साथ
मानों बह-सा गया है।
मचलती बहती शैलजा ने
कलकल करना छोड़ दिया है,
नीरवता उसकी पीड़ा का
पर्याय बन के रह गई है।
संगीतमय उसकी गति,
जंगलों की हरी पत्तियों में,
झाड़ियों में और झुरमुटों में -
ज्ञात नहीं कहाँ- खो गई है।
ढलक रही है ख़ामोशी
तोड़कर कलकल-ध्वनि को
जैसे चुप अधरों पर
सर्द उँगली समय की
धर दी गई हो !
विस्मृति-धारा में हिलती
कुछ धुँधली आकृतियाँ,
शुष्क होते अश्रु-कण,
आत्मा की पिघलन |
चेतना की रात जुगनूदार
धीमे-धीमे ढल रही,
मौन, ढुलती विस्मृति को
मदीली नींद छल रही |
लौट आने का मन नहीं
इस मानवेतर भीड़ से,
दूर क्षितिज के पार
कुछ लकीरें,कुछ आकृतियाँ
कौंध रहीं हैं,,,
शायद युगों का
खोया हुआ परिचय मिले,
ये तिलिस्म नहीं
एक विस्मृति है मेरे होने की !
____हिमांशु