ये शाम का बढ़ता धुंधलका
सर्दो-बू से गुँथा-लिपटा हुआ,
उतरता चला आ रहा
ज़र्रे-ज़र्रे जज़्ब होता हुआ |
सियाह गुलाबी-सी पैरहन
चाँद-सितारों जड़ा आँचल
हर-सू फैलाती इक मदहोशी
चली जा रही रसवंती साँझ |
सूरज भी कंप कंपाकर
ओढ़ काली गरम चादर
वो उतर चला अस्ताचल
कल फ़िर आने का वादा कर |
तान अँधेरे की चादर
सोने चले बस्ती नगर
सरसराती सर्द फ़िज़ा में
तय कर आज का सफ़र |
_____हिमांशु