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छलक उठीं अमराइयाँ,,,,,


शाम की ही तो बात है
उफ़क़ पे लम्स ऐ तवील था
शफ़क़ का,
शर्मीली हसीना के
रुखसारों-सा सुर्ख़ |

किसे थी खबर
हया के आग़ोश में
सिमटी बर्क़
शब-भर दरीचों से
मुसलसल झाँकती रहेगी|
सुबुक-सहर के तसव्वुर में
मिलन की जुस्तजू ले
जब ज़मीं के साहिल से
पूरब की पेशानी पे
उगा वो अनूठा सूरज |
तो था शफ़्फ़ाक-दिल
कायनात में चटखाता
अनगिनत गुंचे
अपने अज़ीम ताब से
फैलाता अमन-ओ-सुकूँ |
परीवश बर्फाब शब
ले विदा अब
माहताब-ओ-सितारों से
लहराते आँचल संग
उतर रही थी लहरों में |
देखने इस हसीँ नज़ारे को
ठहर ना सकीं
शफ़्फ़ाक हसीन बूँदें
उमड़ते बादलों के
अर्ज़-ओ-तूल सीनों में |
छोड़ सहर की रानाइयां
मीत बादलों की टोलियां
सखियाँ सहेलियां
बरस पड़ीं यक-ब-यक,
औ, छलक उठीं अमराइयाँ |
____हिमांशु

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