कमरे में बैठी
कुछ सोचा किये थी,
तबीयत नासाज़ थी,
दिल भी डूबा-डूबा सा था,
तभी बाहर
रौशनी का दरीचा-सा झलका |
खिड़की से झाँका
ये लो !
आज फ़िर कई दिन बाद
उतरा था चाँद मेरी मुंडेर पे,
अरे वाह !
कितनी हसीं थी चांदनी उसकी !!!
दौड़कर नंगे पाँव बाहर आई,
और फ़िर
ना दुआ, ना सलाम
(कई बार मुझे कोफ़्त होती है ख़ुद पर,,ख़ैर!
अभी इस झमेले को यहीं छोड़ते|)
सीधे शिकायत का गोला दाग़ दिया,
"कितने दिन बाद आए हो!!!
ख़याल ही नहीं
अपनी नाम-राशि वाली सुहृदा का !"
खिलखिलाता हुआ बोला,
"मैं तो कई बार आया
पर तुम्हें ही नहीं पाया |
वैसे आसमाँ से
देखा ही करता हूँ तुम्हें,,,
आज मन नहीं माना
तो मिलने चला आया |"
सच,
कितना प्यारा,
कितना अपना है चंदा !
ख़ुशी के मारे
सुध-बुध ही खो बैठी थी|
मैं ही क्या,
सारा आलम झूम उठा था
पेड़-पौधे, फूल-पत्तियां,
सब चाँदनी में नहा उठे थे |
यहां तक कि
नीड़ों में सो चुके पंछी भी
उसकी मनमोहक आवाज़ सुन
टुकुर-टुकुर उसे निहार
चहचहा रहे थे |
लहराती सरगोशियाँ करती
हवाओं ने तो फ़िज़ाओं में
मौसिक़ी ही बिखेर दी थी|
वह बोला---
"कुछ थकी-थकी उदास सी
लग रही हो, क्या हुआ?"
मैंने कहा-- "अरे, कुछ नहीं,
बस, यूँ ही |"
तुरंत कुछ इशारा किया उसने,
आनन-फानन में
आ पहुँची बादलों की टोली
संग लाई बरखा सहेली |
फ़िर क्या था !!!!!
चंदा-चाँदनी,, बादल-बरसात,
मचलती हवाएँ, झूमती घटाएँ,
सबने मिलकर
ऐसा समाँ बाँधा कि
सारे संताप धूल गए |
सभी आपस में ख़ूब बतियाए,,,,
बातें करते-करते अचानक बोला--
'मित्रा ! वैसे आजकल
मैं भी उदास व क्षुब्ध हूँ
मानवीय दुनिया में हो रहे
अमानवीय कृत्यों पर |
क्यों मनुज सीख नहीं लेता
माँ-प्रकृति के परिजन से ?
ये देखो, इन हवाओं को,
मन-मुताबिक़ यहाँ-वहाँ
इतराती सरसराती फिरती हैं
पकड़ना, कैद करना
अनाचार, अत्याचार तो बहुत दूर
इन्हें कोई छू कर भी
पशेमाँ नहीं करता |
क्यूँ धरा पर
बेटियाँ महफूज़ नहीं?
जान हैं वे इस लोक की
मचलने दो, उमगने दो
रोको नहीं, आगे बढ़ने दो
हवाओं की तरह
महका देंगी वे इस चमन को |"
मैंने गर्दन झुका कर सर हिलाया
आँखे नहीं मिला पाई |
और फ़िर जब उसने
मुस्कुराते हुए विदा ली
तो भरे गले से मैंने
जल्दी फ़िर आने को कहा|
वादा कर चार कदम चला ही था
कि मुझे कुछ याद आया
(हमेशा कुछ न कुछ छूट ही जाता है मुझसे)
बोली---
"अगली बार
आने से पहले
संदेसा ज़रूर भेजना |
इस बार यथोचित
मेहमाननवाज़ी हो नहीं पाई,
जंगल-से में रहती हूँ ना |"
वो मुस्कुराया,
और हाथ हिलाते चल दिया|
भारी-मन से उसे विदा कर
कमरे में लौटी,
तो नीरव अंधकार के बावजूद
यूँ लगा मानों
'देहरी पर दीप जला गया कोई'
कुछ सोचा किये थी,
तबीयत नासाज़ थी,
दिल भी डूबा-डूबा सा था,
तभी बाहर
रौशनी का दरीचा-सा झलका |
खिड़की से झाँका
ये लो !
आज फ़िर कई दिन बाद
उतरा था चाँद मेरी मुंडेर पे,
अरे वाह !
कितनी हसीं थी चांदनी उसकी !!!
दौड़कर नंगे पाँव बाहर आई,
और फ़िर
ना दुआ, ना सलाम
(कई बार मुझे कोफ़्त होती है ख़ुद पर,,ख़ैर!
अभी इस झमेले को यहीं छोड़ते|)
सीधे शिकायत का गोला दाग़ दिया,
"कितने दिन बाद आए हो!!!
ख़याल ही नहीं
अपनी नाम-राशि वाली सुहृदा का !"
खिलखिलाता हुआ बोला,
"मैं तो कई बार आया
पर तुम्हें ही नहीं पाया |
वैसे आसमाँ से
देखा ही करता हूँ तुम्हें,,,
आज मन नहीं माना
तो मिलने चला आया |"
सच,
कितना प्यारा,
कितना अपना है चंदा !
ख़ुशी के मारे
सुध-बुध ही खो बैठी थी|
मैं ही क्या,
सारा आलम झूम उठा था
पेड़-पौधे, फूल-पत्तियां,
सब चाँदनी में नहा उठे थे |
यहां तक कि
नीड़ों में सो चुके पंछी भी
उसकी मनमोहक आवाज़ सुन
टुकुर-टुकुर उसे निहार
चहचहा रहे थे |
लहराती सरगोशियाँ करती
हवाओं ने तो फ़िज़ाओं में
मौसिक़ी ही बिखेर दी थी|
वह बोला---
"कुछ थकी-थकी उदास सी
लग रही हो, क्या हुआ?"
मैंने कहा-- "अरे, कुछ नहीं,
बस, यूँ ही |"
तुरंत कुछ इशारा किया उसने,
आनन-फानन में
आ पहुँची बादलों की टोली
संग लाई बरखा सहेली |
फ़िर क्या था !!!!!
चंदा-चाँदनी,, बादल-बरसात,
मचलती हवाएँ, झूमती घटाएँ,
सबने मिलकर
ऐसा समाँ बाँधा कि
सारे संताप धूल गए |
सभी आपस में ख़ूब बतियाए,,,,
बातें करते-करते अचानक बोला--
'मित्रा ! वैसे आजकल
मैं भी उदास व क्षुब्ध हूँ
मानवीय दुनिया में हो रहे
अमानवीय कृत्यों पर |
क्यों मनुज सीख नहीं लेता
माँ-प्रकृति के परिजन से ?
ये देखो, इन हवाओं को,
मन-मुताबिक़ यहाँ-वहाँ
इतराती सरसराती फिरती हैं
पकड़ना, कैद करना
अनाचार, अत्याचार तो बहुत दूर
इन्हें कोई छू कर भी
पशेमाँ नहीं करता |
क्यूँ धरा पर
बेटियाँ महफूज़ नहीं?
जान हैं वे इस लोक की
मचलने दो, उमगने दो
रोको नहीं, आगे बढ़ने दो
हवाओं की तरह
महका देंगी वे इस चमन को |"
मैंने गर्दन झुका कर सर हिलाया
आँखे नहीं मिला पाई |
और फ़िर जब उसने
मुस्कुराते हुए विदा ली
तो भरे गले से मैंने
जल्दी फ़िर आने को कहा|
वादा कर चार कदम चला ही था
कि मुझे कुछ याद आया
(हमेशा कुछ न कुछ छूट ही जाता है मुझसे)
बोली---
"अगली बार
आने से पहले
संदेसा ज़रूर भेजना |
इस बार यथोचित
मेहमाननवाज़ी हो नहीं पाई,
जंगल-से में रहती हूँ ना |"
वो मुस्कुराया,
और हाथ हिलाते चल दिया|
भारी-मन से उसे विदा कर
कमरे में लौटी,
तो नीरव अंधकार के बावजूद
यूँ लगा मानों
'देहरी पर दीप जला गया कोई'