और जब वो याद आया,
तब जो कुछ भूला था,
वो सब सहज याद आया.
खिल पड़े कली-फूल ही नहीं,
कोंपल औ' बूटे भी,
खिलखिला पड़ी हवाएँ ही नहीं,
क़ायनात भी,
चहकने लगे परिंदे ही नहीं,
दिल के अरमाँ भी,,,,
महकने लगी बगिया ही नहीं,
मेरे तन की माटी भी,
जाने कहाँ चली गयी थी
मेरे अंतस की कस्तूरी,
जो आज खिल पड़ी है
हर कमल में,
हर संदल में,
हर चर और अचर में,,,
मेरे अपने
तू याद क्या आया कि
मेरा ही अपनापन
मेरे दामन से निकल
होना चाहता है पराया.