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सांझ




झील-तीरे, घाट-पत्थर पे बैठी, 
सुबक रही थी सांझ, 
कुछ सोचा किये थी, 
गुमसुम-सी थी, 
मायूसी के घेरे 
साफ़ नज़र आते थे पेशानी पे |
कहीं कुछ था, 
जो कसक रहा था, 
कुछ लावा-सा था, 
जो भीतर ही भीतर 
बह रहा था, 
हर शै जो आस-पास थी 
हैराँ थी, परेशाँ थी |
सब सोच रहे थे, 
रंगीनियाँ बिखेरने वाली 
समां रेशमी बनाने वाली 
मखमली-सी सांझ 
आज ग़मज़दा कैसे थी?
नीड़ों की ओर लौटते पंछी, 
वादी की मस्त बयार, 
झील का ठहरा-सा पानी, 
झूमते पेड़-फूल-पौधे, 
सभी ने पूछा बारी-बारी
उसकी उदासी का सबब, 
कुछ नहीं बोली, 
यूँ ही सर झुकाए बैठी रही, 
सुबकती रही|
और फिर आई सखी निशा 
रोज़ जिसके आते ही 
चहकने लगती थी, 
बलैयां लेकर 
स्वागत करती थी जो, 
आज चुप थी |
लाख पूछा उसने 
पर कुछ ना बोली, 
हाँ, विदा समय 
 कुछ अस्फुट-सा स्वर 
सुनने में आया--
"अभिशप्त हूँ,,,, 
एकाकीपन का शाप 
मिला है कुझे |"
आनन-फानन में 
सांझ के मन की बात 
जा पहुंची गगन तक, 
सुनते ही इस बात को 
सांझ-तारा गुनगुनाया, 
झट पहुंचा झील तीरे, 
औ' हाथ गह सांझ का 
मुस्काता बोला-- 
अरे ! अकेली कैसे हो,
मैं हूँ ना तुम्हारा संगी 
रोज़ तुम संग ही तो
उदित होता हूँ, 
जब-जब तुम हो 
तब-तब मैं हूँ, 
चलो, उदासी छोड़ो |
और अल्हड़, 
सरलमना सांझ  
चल पड़ी गुनगुनाती 
मुस्कुराती 
एक सुहाने सफर पे 
सांझ-तारे संग |
____हिमांशु













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