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समाँ है ये तर-बतर-सा,,,,,


समाँ है ये तर-बतर-सा
रुत भी है भीगी-भीगी सी
धुले-धुले से सब शज़र हैं
फ़िज़ा भी है ये निखरी-सी|

शैदाई अब्रे सियाह भटकते
जहँ-तहँ बरसते-बरसते |
लगता ज्यूँ बिखरे ख़ाब हैं
मन-अंतर तक छितरे हुए |

क्या-क्या कहती-सी,
कुछ-कुछ सुनती-सी
ये बरखा की रुत है,,,
जो मह्सूसिये रूहे-जेहन से
तो हर-सू महकी है
नशीली आँखों की खुशबू |

लो, फिर बिखरी है उफ़क पर
बादल औ' चाँद की शब,
उधर आसमाँ पे
बिखरे हैं सितारे,
तो इधर
तिरने लगे हैं कुछ जुगनू
आँखों की सरज़मीन पर |

बिछी हैं दूSSSSर तलक
बल खाती हसीन वादियों में
बेशुमाSSSर पानी की तहें,
फिर किसके लिए अब भी
बरस-बरस रहा है गगन |

____हिमांशु

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