-->

नदिया चली रे!



नदिया चली रे!
पिय के नगर
ठुमकती-मचलती-इतराती |
चमकीला नीला आँचल लहराती
घाट-पत्थरों से बतियाती |
कभी इधर, तो कभी उधर से
लहराती, उमगती, बल खाती |

नैनों में सपन मिलन के संजो
अधरों पे गीत सजाती |
अनवरत आगे ही बहती,
न किसी के रोके रूकती |
खुशरंग मौसमों के हुनर
चहुँ ओर बिखराती |
पिय की यादों की गंध से
मौसम महकाती,
राहों में आ जाने से
मौसम ठहराती |
गुलमोहर से शहदीले शब्द
हर सू झिरमिराती,
कल-कल करती
हर अधर पे मौसम चहकाती |
लरजती आँख का दरिया
पल-पल गहराती |
अपनी धुन में गुनगुनाती,
मोरपंखिया शाम के किसी
रुपहले मंज़र पर जब होगी
प्रियतम सागर से मुलाकात |
सोच उसी पल को, लजाती
चली जा रही नदिया की धार
अपनी ही चाल पर इठलाती |
औ जब आई मिलन की वेला
तो भूली अपना सब `अपना'
कुछ नहीं रखा अलग से अपना
स्व-अस्तित्व ही निःशेष
समर्पित कर दिया |
देख ये निःस्वार्थ समर्पण,
सभी को उसपे प्यार आया,
दूर उफ़क पर
चाँद मुस्कुराया,
सितारे हँसे,
गगन झिलमिलाया |
______हिमांशु महला

Read reviews with Love

Nemo enim ipsam voluptatem quia voluptas sit aspernatur aut odit aut fugit, sed quia consequuntur magni dolores eos qui ratione voluptatem sequi nesciunt.

Disqus Comments