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दर्द से बुनी चादर में


कल काली सियाह रात में
दर्द से बुनी चादर में
लिपटा जागता था चाँद |
कहने को संग चंद बादल,
कुछ सितारे भी थे
पर ना जाने कितने वीरानों में
सिमटा सिसकता था चाँद |

दर्द का सैलाब
घिर-घिर आता था |
टीस बन घुटता था
उमड़ घुमड़ नयनों की डगर
बरस जाता था |
जज्बा तो देखिये मित्रों का,,,
हुजूम-ए-अब्रे सियाह
आगोश में ले लेते थे
बरसते दर्द को |
जब सराबोर
हो जाता था आँचल,
उलट देते थे
उन मोतियों को
जीवन देकर |
उधर धरती पे
काले बादलों को देख
सरसते थे लोग,
अभी बरसेंगे
ये सोच के
उमगते थे लोग|
कैसा है ये चक्र,,,
ना कोई समझा है
ना जान पाया है |
हैं कुछ जज़्बे ऐसे भी
दर्द के पियाले पी
खुशियों के जाम
छलकाते हैं |
तारीकियों के साए में
उजालों के जुगनू
चमकाते हैं |
(सलाम है ऐसे जज्बों को)
_____हिमांशु

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