-->

मन की कोर से उठी सदा,,,,,


कभी किसी की सदा
मन की कोर से उठी सदा
यूँ ही व्यर्थ नहीं जाती,,,

कभी घुलती है फ़िज़ाओं में
तो कभी हवाओं में
पराग-सी बिखर जाती है|

चटखती है कलियों में
उड़ ख़ुशबू परियों-सी
बागों में बिखर जाती है|

उमड़ती है घटाओं में
बन सावन की लड़ियाँ
परबत पे बरस जाती है|

दूर उत्ताल तरंगों में
बन चंचल जीवन संगीत
यूँ वो मचल जाती है|

तू आये ना आये,,,
तेरी यादों की घटा
कर मन-सावन में बसेरा
यूँ ही ठिनक जाती है |

_____हिमांशु

Nemo enim ipsam voluptatem quia voluptas sit aspernatur aut odit aut fugit, sed quia consequuntur magni dolores eos qui ratione voluptatem sequi nesciunt.

Disqus Comments