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चिड़ियों का एक झुण्ड,,,,,

छुट्टी का दिन, सुबह का समय था | अलसाया-सा मौसम मानों सारी कायनात अपने चंगुल में लिए था | खिड़की से बाहर झाँका तो पेड़ भी कसमसाये-से लगे | पत्तों की हरक़त पर भी मानों छुट्टी का असर तारी था | हवा बिलकुल बंद थी | अपने कमरे में कुर्सी पर अधलेटी-सी वह कुछ पढ़ने की कोशिश कर रही थी | मन नहीं लग रहा था पढ़ने में भी | गर्मियाँ कुंद किये रहती हैं सब कुछ | हर-सू अलाव-सा जलता महसूस  होता है | बेहाल मानव, बदहाल जानवर, प्यास से तड़पते पंछी, सूखती वनस्पति !!! उफ़ ! कूलर, एसी लगे कमरों में बैठकर भी मन कचोटता है | प्रकृति झुलस रही हो तो मन प्रसन्न कैसे हो सकता है? हम सब प्रकृति संग ही संतप्त या प्रसन्न होते हैं,,,है ना ? हलकी-हलकी चलती बयार, झूमते पेड़-पत्ते, बेल-बूटे; मेघों को देख खुश होकर नाचते मोर बरबस ही हमें भी हर्षित कर देते हैं | झिरमिर-झिरमिर बरसती बूँदें सहज ही मन को गुदगुदाने लगती हैं | मन-मयूर माँ-प्रकृति संग नृत्य कर उठता है |
कुट-कुट-कुट,,,,,कुट-कुट-कुट की आवाज़ से विचार शृंखला टूटी | नज़र उठाकर देखा तो चिड़ियों का एक झुण्ड खिड़की के शीशे पर चोंच से 'नॉक' कर रहा था | जब तक दाना-पानी नहीं मिला तब तक शीशे से हटीं नहीं | जब-जब भूल जाती हूँ, आकर याद दिला देती हैं | सहज भाव से | काश ! यह सहज भाव मानव भी सीख पाता इन पंछियों-जानवरों से|
 

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