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बरखा में गीला बदन,,,,,,


बरखा में
गीला बदन
नीले आँचल में समेटती
वो चली आ रही
बला की हसीं शाम |

बादलों की मस्ती चुरा
बूंदों संग तरन्नुम सजा
पर्बतों की वादियों से
उतरती चली आ रही
मखमली-नशीली शाम |
दिन भर के
थके-हारे चारागर,
भूले अपनी थकन, औ'
थिरकने लगे
साँझ की नीली पैरहन से
छिटकती मोतिया बूंदों संग |
जब वो गुज़री
मेरी अटरिया से,
मैंने कहा- "अरी बावरी!
ज़रा होश में आ,
गीले बदन कहाँ
रही तू भटक!!
चल कपडे बदल|"
और उसे खींच अंदर,
दी उसे अपनी
सितारों जड़ी,
खूबसूरत काली साड़ी|
पहन उसे जब
चली वो इठलाती, बलखाती
तो सामने क्या देखती हूँ,,
झूमता, मुस्कुराता,
बे-ईमान चंदा
खड़ा है उसे अपने संग
ले जाने आसमान में |
____हिमांशु

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