-->

साँझ की वेला,,,,,


साँझ की वेला थी,
घाट के पत्थर पर बैठी
देख रही थी
निरंतर अग्रसर होती
नदिया की धार को,,,
अनथक बिन रुके
चलती ही जा रही थी
बस आगे,,आगे,, और आगे |
औ'
चाल भी कमाल की,
प्रफुल्लित, मदमस्त
हिरणी-सी कुलांचे भरती |

घंटों हो गए निहारते,
पर मन ना भरा,,
अनायास
पूछ ही बैठी--
ए री सखी!
दिन-रात
बोझा ढोती हो,
सतत भागती रहती हो,
कभी थकती नहीं?
कभी रूकती नहीं?
कभी तो पीठ टिका
सुस्ता लिया करो |

भला, वह किसके रोके
रुकने वाली थी,,
किन्तु,
जवाब तो देना ही था,
`सखी' जो कहा था,
अतः,
लहर-दर-लहर
अपना जवाब देती
आगे बढ़ती रही,,

बोली--
`जब हो आस
पिया मिलन की,
तो कौन बावरी
पैरों में बंधन डालेगी?
कौन परवाह करेगी
पीठ पर ढोये
जा रहे बोझ का?'

अगला प्रश्न छूटा--
`परबत से सागर तक
टेढ़ा-मेढ़ा,
इतना लम्बा पथ,
कैसे व्यतीत करती हो
बिन बोले, बिन बतियाए?'

लहरों ने उचककर
चूमा मुख मेरा
औ' बोलीं--
`मेरी प्यारी सखी!
किसने कहा कि
हम मौन यात्रा करती हैं !!!
हम तो सबके संग
बतियाती जाती हैं,
परबत, झरने, फूल,
बाग़-बगीचे, चट्टानें,
घाटियाँ, पंछी,,,,,,
और हाँ!
राह में
अनेक अतिथि भी
हमसे बतियाने
आते हैं,,,'

`कौन' ?

बोली--
बादल, सूरज,
चाँद-सितारे सभी तो,
इन सबके संग
बतियाते, गीत गाते
इतना लम्बा सफ़र
कब समाप्त हो जाता है
पता ही नहीं चलता|
और हाँ!!
तुम जैसी
प्यारी सहेलियां भी तो हैं |'

और फ़िर एक बार
मुख चूम, गले मिल
चल पड़ी लहरें,
मचलती, इठलाती,,,
छोड़ मुझे पीछे,,,,,,

कई देर निहारने के बाद
मैं भी उठी,
औ' लौट चली घर
भीगे तन औ'
हल्के मन से |

____ हिमांशु

Nemo enim ipsam voluptatem quia voluptas sit aspernatur aut odit aut fugit, sed quia consequuntur magni dolores eos qui ratione voluptatem sequi nesciunt.

Disqus Comments